अपने वेष की रक्षा हमारा उत्तरदायित्व


एक कथा है कि एक बहुरुपिया राजा के दरबार में पहुंचा। राजा ने उससे कहा कि तुम्हारी कला को हम तब मानें जब तुम हमें भुलावे में डाल दो और तुम्हारे नाटक के समय हम तुम्हें पहिचान न पाएं। बहुरुपिया हंसते हुए सिर झुकाकर चला गया। इस बात को कई दिन बीत गए और सभी अपने काम में व्यस्त हो गए।


कुछ दिनों बाद अचानक एक दिन एक दिव्य संत राज-दरबार में उपस्थित हुआ। संत को देखकर राजा ने तुरन्त ही अपने राजसिंहासन से उतरकर सन्त का अभिवादन किया और उन्हें राजसिंहासन पर विराजमान कर विधिवत पूजन-अर्चन किया। भोजन कराने के उपरान्त बहुत सा धन राजा ने दक्षिणा के रूप में संत के श्रीचरणों में अर्पित किया किन्तु संत ने धन लेना तो दूर उस धन का स्पर्श भी नहीं किया और ऐसे ही उठकर चले गए।


इसके कुछ देर बाद ही वह बहुरुपिया राजदरबार में उपस्थित हुआ और राजा से कहा कि महाराज लाइए मेरा पुरुस्कार। राजा ने पूछा कि किस बात का? बहुरुपिया बोला कि मेरे सच्चे नाटक का, जो आपसे पूर्व में तय हुआ था। आपने कहा था कि मुझे भुलावे में डाल दोगे तब मानूंगा। वह संत मैं ही था, जिसको राजसिंहासन पर बैठाकर आपने पूजन-अर्चन किया। आप मेरे झूठे नाटक को सच मान बैठे और पहचान नहीं पाए।


बहुरुपिया की बात सुनकर राजा अति प्रसन्न हुआ और प्रभावित भी। राजा ने कहा कि अब तुम हमसे पुरुस्कार मांग रहे हो। हम तो उसी समय तुम्हें सब कुछ देने को तैयार थे, तब क्यों न लिया। बहुरुपिया बोला कि महाराज! उस समय मैं संत था। संन्यासी के धर्म और मर्यादा पालन की पूरी जिम्मेदारी भी मेरी ही थी। संन्यासी वेष इतना पावन है कि इसके स्मरण मात्र से अन्त: करण में पवित्रता का संचार होने लगता है। विकार कोसों दूर भाग जाते हैं।


ऐसे परम पावन वेष को धारण करके मैं इसकी मर्यादा कैसे तोड़ सकता था। यही कारण है कि मैंने उस समय आपका दिया हुआ द्रव्य नहीं लिया। बहुरुपिए की इस बात से राजा को अत्यधिक प्रसन्नता हुयी और जो धन संन्यासी वेषधारी बहुरुपिया को अर्पित किया था, उससे कुछ और अधिक धन देकर बहुरुपिया को विदा किया।


शिक्षा: यहां बात आचरण की है कि जब बहुरुपिया भी वेष की आन-बान और मर्यादा की रक्षा करता है तो हम लोगों का क्या दायित्व बनता है? हम सबको भी अपने-अपने वेष की रक्षा करनी है और यही हमारा उत्तरदायित्व है।


कथा की सत्संग की कितनी बातें हम अपने जीवन में उतार पाते हैं। लोग हमें भक्त/ संत/ रसिक कहें और हम एक मिथ्या नाटक तक नहीं कर पाते। यदि हम सदाचरणों का मिथ्या नाटक भी करने लगें तो यह भी एक दिन सत्य हो जाएगा और अंतर का कल्मष धुल जाएगा।