गीता क्या है? ‘या भगवता गीता सा गीता।’ जो भगवान के द्वारा गायी गयी है, वही है गीता। भगवान को भगवान हम क्यों कहते हैं? भगवान वे हैं, जिनमें भग है। संस्कृत में ‘भग’ शब्द के कई अर्थ हैं। एक है मूल कारण और एक है शास्त्रीय व्याख्या। भग यानी छह वस्तुओं का समाहार। ये छह वस्तुएं जानना जरूरी है।
प्रथम है ‘ऐश्वर्यं च समग्रं च’। अणिमा, लघिमा, महिमा, ईिशत्व, वशित्व प्राप्ति, प्राकाम्य, अन्तर्यामित्व, इन सबको ऐश्वर्य कहते हैं। इसे आलौकिक शक्ति भी कह सकते हैं। साधना में ऊंचा उठने से कई शक्तियां साधक के पास आ जाती हैं। साधक को उन शक्तियों की ओर ध्यान नहीं देना चाहिए। शक्ति आई तो भी कोई बात नहीं, नहीं आई तो भी कोई बात नहीं। शक्ति आ जाने से असुविधा होती है। मन में इच्छा होती है कि मैं शक्ति का प्रदर्शन करूं। उससे फिर साधक की अधोगति हो जाती है। हम नाम—यश के पीछे दौड़ते हैं, और कंगाल बन जाते हैं। तो यही अणिमा, लघिमा आदि ऐश्वर्य हैं।
ज्ञान है आत्मज्ञान। पुस्तकीय ज्ञान नहीं। पुस्तकीय ज्ञान आज पढ़ते हो, कल भूलते हो। वह ज्ञान, ज्ञान नहीं है। ठीक आज की पुस्तक में जो एक शहर का नाम है, हो सकता है कि कल उसका नाम कुछ और हो जाए या उसकी जगह राजधानी कहीं और हो जाए। तो पुस्तकीय ज्ञान चरम तथा परम नहीं है। इसलिए पुस्तकीय ज्ञान भी बाहरी ज्ञान है, वह ज्ञान नहीं है। घटना के परिवर्तन के साथ-साथ उनकी सत्यता भी नष्ट हो जाएगी। तो सही मायनों में ज्ञान क्या है? आत्मज्ञान ही ज्ञान है, क्योंकि जहां ज्ञान क्रिया है, वहां तीन सत्ताएं रहती हैं। तीन सत्ताएं क्या हैं? पहला ज्ञेय- जिसको तुम जान रहे हो। दूसरा ज्ञाता- जो जान रहा है और तीसरा है ज्ञान यानी जानना। यह रूप क्रिया है। तो ज्ञेय, ज्ञाता और ज्ञान, तीनों को लेकर ज्ञान क्रिया पूर्ण होती है। तो इसमें ज्ञेय में दोष हो सकता है, ज्ञानक्रिया में भी दोष हो सकता है और ज्ञाता में भी दोष हो सकता है। किन्तु आत्मज्ञान क्या है? अपने को जानना, माने ये जो ज्ञेय और ज्ञाता हैं, दोनों एक हैं। अत: स्वयं को जान रहा है। इसलिए ज्ञेय और ज्ञाता मेें अन्तर नहीं है। ज्ञेय और ज्ञाता जब एक हो गया तो उनके बीच का अंतर और उसकी क्रियाएं भी नहीं रहतीं। जब दो हैं, तब बीच में संपर्क बनाने वाली किसी तीसरी क्रिया की क्या आवश्यकता? दोनों एक हो जाने से ज्ञानक्रिया कहां रहेगी? आत्मज्ञान में ज्ञेय, ज्ञाता, ज्ञानक्रिया तीनों एक बन जाते हैं, वहां दोष रहने का कोई योग नहीं बनता है। जिनमें ऐश्वर्य हैं, वीर्य हैं, यश हैं, श्री हैं, आत्मज्ञान है, वे हैं भगवान। और है वैराग्य।
वैराग्य क्या है? हर वस्तु का अपना-अपना रंग है। वह रंग ही मनुष्य के लिए मोहक बन जाता है। रंग के कारण ही आकर्षण होता है। रंग ही आकर्षक है। तो हर वस्तु का एक रंग है और रंग के कारण ही आकर्षण है। तो वैराग्य क्या हुआ? हर वस्तु के बीच में तुम हो, भीड़ में तुम हो, मगर किसी वस्तु का रंग तुम्हें आकर्षित नहीं कर रहा है, तुम उसके वश में काम नहीं कर रहे हो, तो उस परिस्थिति में उसको कहेंगे वैराग्य। वैराग्य का अर्थ सब कुछ छोड़ कर हिमालय की गुफाओं में भागना नहीं है। हर चीज के बीच में तुम रहो, मगर किसी चीज का अगर तुम पर असर नहीं पडे़, उसको कहते हैं वैराग्य। तो इन छह वस्तुओं का सम्मिलित नाम है भग। जिनमें भग है, वे हैं भगवान। भगवान कृष्ण कहते हैं - ‘या भगवता गीता सा गीता।
बच्चे के समान आचरण होना
अणिमा क्या? बहुत छोटा बन जाना। यहां छोटे बन जाने से तात्पर्य है -एकदम बच्चे के समान सीधा-सादा, आचरण हो जाना। लघिमा से तात्पर्य है एकदम हल्का हो जाना। महिमा यानी बृहद, विराट बन जाना। सबके लिए आदर्श बन जाना। ठीक वैसा ही अन्तर्यामित्व है। सबके मन के भीतर पैठ बना लेना। कोई क्या कर रहा है- इतना ही जान भर लेना नहीं है यह, ‘वह’ क्या सोच रहा है, यह भी जान लेना। भगवान में ये सारे ऐश्वर्य हैं। दूसरा है प्रभाव। अर्थात जिनकी हुकूमत है दुनिया पर, मनुष्य पर। मानव पर जिनका शासन है। तीसरा है यश। चौथा है श्री, मतलब आकर्षण। जो उनके पास आएगा, उसी को प्रेम हो जाएगा, छोड़ नहीं सकेगा वह उन्हें। श्री का एक और अर्थ होता है परम प्रकृति, इसलिए परमपुरुष का एक नाम है ‘श्रीनाथ’, ‘श्रीपति’। तो परमपुरुष में ‘श्री’ भी रहेगी। और फिर आता है वैराग्य। इन छह गुणों का समाहार भगवान में है।