जानें, क्यों किया जाता है निष्क्रमण संस्कार और क्या है इसका महत्व

प्राचीन समय से शिशु संस्कार के विधान है। हालांकि उस समय चालीस संस्कारों की प्रथा थी लेकिन आधुनिकता के साथ इसमें कमी आती गई। उत्तर वैदिक काल में इसकी संख्या घटकर 25 रह गई।



हिंदू धर्म में सोलह संस्कारों का विधान है। उनमें एक संस्कार निष्क्रमण संस्कार है। यह संस्कार शिशु जन्म के चौथे महीने में किया जाता है। इस संस्कार के अंतर्गत शिशु को पहली बार घर से बाहर निकाला जाता है। निष्क्रमण का मतलब बाहर निकलना होता है। ऐसा कहा जाता है कि नवजात शिशु की त्वचा पहले तीन महीने तक बाहरी वातावरण के लिए अनुकूल नहीं होती है। ऐसे में शिशु को पहली बार चौथे महीने में बाहर लाकर चंद्र देव, सूर्य देव और धरती मां के दर्शन कराया जाता है। यह संस्कार नामकरण के बाद किया जाता है। आइए, इस संस्कार के बारे में विस्तार से जानते हैं-


निष्क्रमण संस्कार


प्राचीन समय से शिशु संस्कार के विधान है। हालांकि, उस समय चालीस संस्कारों की प्रथा थी, लेकिन आधुनिकता के साथ इसमें कमी आती गई। उत्तर वैदिक काल में इसकी संख्या घटकर 25 रह गई। आधुनिक हिंदु शाश्त्रों में इसकी संख्या 16 बताई गई है। इन संस्कारों को वर्तमान समय में किया जाता है। इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य शिशु को वातावरण और समाज से अवगत कराना है।


निष्क्रमण संस्कार कैसे किया जाता है


धार्मिक मान्यता है कि शिशु को चार महीने तक सूर्य की किरणों और वातावरण के समक्ष नहीं लाना चाहिए। इससे उनके मानसिक और शारीरिक सेहत पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। ऐसे में जिस दिन शिशु को पहली बार बाहर लाया जाता है। उस दिन निष्क्रमण संस्कार किया जाता है। इस दिन शिशु को स्नान कराकर सुंदर कपड़े पहनाकर बाहर लाया जाता है। उस समय वैदिक मंत्रोच्चारण, धार्मिक रीति रिवाज और संस्कार किए जाते हैं। इसके बाद शिशु से सूर्य नमस्कार कराया जाता है। फिर चंद्र देवता और कुल देवी-देवताओं को प्रणाम कराया जाता है। अंत में घर के बड़े-वृद्ध से आशीर्वाद दिलाया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि इस संस्कार से शिशु में सदगुण और शिष्टाचार का संचार होता है।